संजीव निगम अनाम
शेरों, ग़ज़लों, कविताओं और कहानियों की दुनिया में खो जाइए।
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हमारे बारे में
कुछ एक दिन में गजल से लड़ा ही ली आंखें,
तमाम उम्र तेरा इंतजार क्या करते....
विनय कृष्ण जी के कुछ इस शेर की मानिंद इस नाचीज़ की ज़िंदगी भी अपनी तमाम कश्मकश और सरोकारों से गुजरती हुई रफ़्ता-रफ़्ता ग़ज़ल और शेरो- शायरी की तरफ मुड़ गई। चुनांचे पिछले चार-पांच बरसों में कोई दो सौ से अधिक ग़ज़लें लिख डालीं ।
शायरी के बीज जेहन में कहाँ से पड़े - यह पूरी तरह से तो बता पाना मुश्किल है, लेकिन हमारे पुरखे कोई सत्तर-पिचहत्तर बरस पहले यू.पी के ‘बलरामपुर’ से आकर शेरो-सुखन की सरजमीं ‘लखनऊ’ में बस गए थे। बाद में, रोजी–रोटी की तलाश पिताजी को सुखनवरी के एक और मरकज ‘दिल्ली’ ले आयी। मेरी पैदाइश और परवरिश ‘दिल्ली’ में ही हुई । लेकिन परिवार के लोगों से मिलने के लिए ‘लखनऊ’ आने-जाने का सिलसिला हमेशा बना रहा । किस्मत ने लखनऊ से जुड़ाव की कड़ी को और भी मजबूत कर दिया ; हमसफर की तलाश भी वहीं जाकर ख़त्म हुई । मीर और मजाज जैसे शायरों की सरजमीं ‘लखनऊ’ और गालिब की ‘दिल्ली’ से जो मुसलसल ताल्लुक कायम रहा , शायद उसी के असर ने शेरो-शायरी में मेरी दिलचस्पी पैदा की । पुराने कायस्थ परिवारों में ऐसे भी शेरो-शायरी का माहौल रहा है, उस तरफ झुकाव की यह भी एक वजह हो सकती है ।
लिखने की शुरूआत यूं तो कॉलेज के दिनों से ही हो गई थी, लेकिन गंभीर लेखन 2018 से शुरू हुआ। संयोगवश 2019 में,प्रतिष्ठित कवि शैल भदावरी से मुलाकात हुई और उनसे छंद विधान की बुनियादी जानकारियां हासिल कीं । परिवार और दिल के करीबियों ने हौसला अफजाई की । चाचा ने एक खूबसूरत सा तखल्लुस दिया- ‘अनाम’ और कारवां धीरे-धीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ चला । शैल भदावरी जी ने मुझे अपने ‘ हिन्दी गौरव परिवार ‘ का हिस्सा बना लिया और वे नियमित रूप से अपनी मासिक काव्य- गोष्ठियों में कविता-पाठ करने के लिए मुझे बुलाने लगे । उनके बे-शुमार प्यार और काबिल मशवरों ने यकीनी तौर पर मेरे फ़न को निखारने में मेरी मदद की । मार्च, 2021 में मुझे ‘मिर्ज़ा ग़ालिब ग्रुप ऑफ गजल लर्निंग’ के संस्थापक राज़ नवादवी साहब से मिलने का सौभाग्य मिला और उनसे ग़ज़ल की बारीकियां सीखने का सिलसिला शुरू हुआ , जो आज भी बदस्तूर जारी है । नवादवी साहब से मुलाकात के ठीक एक साल बाद मार्च, 2022 में मेरा पहला साझा-संग्रह सर्वश्रेष्ठ रचनाएं- ‘मेरे शब्द, मेरी पहचान’ प्रकाशित हुआ।
गुजिश्ता दिनों में धीरे-धीरे नज्म-ए-हिन्द, ड्रीम टॉक ग्रुप, अन्दाज- ए- बंया, कुरते वाला शायर और राब्ता पोयट्री जैसे अदब से जुड़े कई फेसबुक ग्रुप से रिश्ता बन गया है ।...
ग़ज़ल-गोई का सफ़र चुनौतियों भरा है। कहीं उर्दू ग़ज़ल की अरबी-फ़ारसी से जुड़ी पुरानी रवायत और आमफ़हम ज़बान में लिखी जाने वाली हिंदी ग़ज़ल की आधुनिक परंपरा के बीच मीठी नोंक-झोंक है तो कहीं ग़ज़ल के ‘अरूज’ उसके व्याकरण - रदीफ, काफिए और बह्र के संतुलन को लेकर लम्बी बहस का सिलसिला । कहीं ग़ज़ल में भाषा, शिल्प और प्रतीकों के स्तर पर हो रहे नित नये प्रयोगों को स्वीकारने में हिचकिचाहट भी है।
जाँ निसार अख़्तर ने लिखा है - ‘हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या. चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए। चंद लफ़्ज़ों में आग छुपाने का फ़न हासिल करना यकीनन आसान नहीं है। लेकिन जिस ख़ुदा ने ग़ज़ल का दयार बख्शा है, एक दिन वो ग़ज़ल के उरूज का मेयार भी बख्शेगा- ऐसा मेरा अक़ीदा है । बाकी आपकी दुआओं पर छोड़ता हूं.......
गुरुदेव आदरणीय कवि शैल भदावरी जी, उस्ताद राज़ नवादवी साहब और हर दिल अजीज़ शायर और मेरे उस्ताद जनाब आदिल राशिद साहब का बहुत बहुत शुक्रिया।
फरिश्ते आ गए खुद ही संवारने के लिए
"अनाम" नाम का पत्थर तराशने के लिए।
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